top of page
nirajnabham

स्वप्नदर्शी

नहीं था वह आम आदमी

जब पैदा हुआ था।

अलबत्ता, आम थी

उसके आम बनने की शुरुआत।

बदलने लगे थे, तेजी से

दुनिया के बारे में उसके विचार

स्कूल में दाखिले के बाद से ।

मास्साहब की समाजवादी छड़ी

उसे धकेलती रही

सपनों के एकांत कोने में।

ज़रूरत क्या है

इसका उसे ज्ञान था

अभाव किसे कहते हैं

इससे अनजान था।

खाए उसने झटके

जो सभी आम थे ।

वयस्क तो नहीं हुआ, बचपन में

पर मिल गई थी उसे सूचना

समय से पूर्व, वयस्क होने की।

टूटने लगे थे पके बालों की तरह

जतन से जमा किए भरम

फिर भी क़ायम था

कतार लगाने का उसका शौक

खड़ा क्यों न हो वह

भले आखिरी छोड़ पर ।

सभी आम आदमी होते थे

खड़ा होता था वह जिनके साथ।

जब झींक रहे होते थे लोग

आगे बढ़ने की धीमी गति पर

खोया रहता था वह

कल्पना में उस पल की

जब कोई नहीं होगा

उसके और काउंटर के बीच।

उसका सपना था –

एक कतार विहीन समाज।

पूरी हो जाए हर जरूरत, चुपके से

आ जाए नींद आँखों में

हर रात, समय पर

मौत की तरह, चुपके से।

0 views0 comments

Recent Posts

See All

करें भी तो क्या करें

एकरसता, एक तान, एक ऊब___ हो रहा है सब कुछ तयशुदा तरीके से सभी चीजें हैं अपनी जगह वैसे ही जैसे कि उसे होना चाहिए हर चीज है पहले से निश्चित...

आदिम आनन्द

अब भी आकर्षक है तेरा रूप फन काढ़े साँप की आँखों की तरह पटरियों पर उद्धत भागती रेल के इंजन की तरह । अब भी चंचल हैं तेरे भीत नयन डोलती हैं...

सपनों का सच

सपने इन आँखों में थे सपने उन आँखों में थे सपने सबकी आँखों में थे। नहीं थी तो- सपनों की डोर जो जाती थी- एक आँख से दूसरी आँख तक। कोई सपनों...

コメント


bottom of page