नहीं था वह आम आदमी
जब पैदा हुआ था।
अलबत्ता, आम थी
उसके आम बनने की शुरुआत।
बदलने लगे थे, तेजी से
दुनिया के बारे में उसके विचार
स्कूल में दाखिले के बाद से ।
मास्साहब की समाजवादी छड़ी
उसे धकेलती रही
सपनों के एकांत कोने में।
ज़रूरत क्या है
इसका उसे ज्ञान था
अभाव किसे कहते हैं
इससे अनजान था।
खाए उसने झटके
जो सभी आम थे ।
वयस्क तो नहीं हुआ, बचपन में
पर मिल गई थी उसे सूचना
समय से पूर्व, वयस्क होने की।
टूटने लगे थे पके बालों की तरह
जतन से जमा किए भरम
फिर भी क़ायम था
कतार लगाने का उसका शौक
खड़ा क्यों न हो वह
भले आखिरी छोड़ पर ।
सभी आम आदमी होते थे
खड़ा होता था वह जिनके साथ।
जब झींक रहे होते थे लोग
आगे बढ़ने की धीमी गति पर
खोया रहता था वह
कल्पना में उस पल की
जब कोई नहीं होगा
उसके और काउंटर के बीच।
उसका सपना था –
एक कतार विहीन समाज।
पूरी हो जाए हर जरूरत, चुपके से
आ जाए नींद आँखों में
हर रात, समय पर
मौत की तरह, चुपके से।
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