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सोचता हूँ

  • nirajnabham
  • Jan 17
  • 1 min read

सोचता हूँ – देख पाऊँगा

अपने आप को

अपनी ही संपूर्णता में

अपनी ही विशालता में

या कि लघुता में।

 

सोचता हूँ – सहेज पाऊँगा

अपने आप को कभी

जो बंटा है टुकड़ों में

जुड़ा हुआ एक बन्ध से

जो न टूटता है न जुड़ने देता है।

 

सोचता हूँ – तोड़ पाऊँगा

उन रिश्तों को

जिसमें मेरे टुकड़े दबे हैं

यादों को जिसमें ये टुकड़े टंगे हैं

सपनों को जिसने ये टुकड़े गढ़े हैं।

 

सोचता हूँ – जोड़ पाऊँगा

उन टुकड़ों को

जिस पर रिश्तों का रंग है

मोह का जंग है

भावनाओं की तरंग है।

 

सोचता हूँ – पहचान पाऊँगा

निर्जीव से उस पेड़ को

जिसमें रिश्तों के पत्ते नहीं

यादों की टहनियाँ नहीं

सपनों के फूल नहीं।

 

सोचता हूँ –सुलझा पाऊँगा

टुकड़ों में दिखाई देती पहेली को

जो एक होते ही बदल जाती है

दर्द भर जाता है दरारों में

फूट पड़ता है लावा अन्तर्मन में।

 

सोचता हूँ – समझ पाऊँगा

एक दिन इस राज को

बंटने की मजबूरी को

सिमटने की चाहत को

जब न रहेगा बांटने, समेटने को।

 

सोचता हूँ- समझेगा कौन

जो बंटा हुआ है या

जो सिमट चुका है

या कि कुछ नहीं रहेगा

न सोचने न समझने को

 

सोचता हूँ- सोच नहीं पाऊँगा।

 

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