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सहयात्रा

  • nirajnabham
  • Jan 17
  • 1 min read

हम-तुम साथ चले

जब सागर तट से गुजरी राह

दौड़-दौड़ कर आई लहरें

धो देने कदमों के निशान

हमने भी खिलवाड़ किया।

 

हम-तुम साथ चले

जब मैदानों से गुजरी राह

झूम-झूम कर बातों में

तकते एक-दूजे की आँखों में

यह रास्ता भी पार किया।

 

हम-तुम साथ चले

जब घाटी से गुजरी राह

सन्नाटा छाया साँसों में

हाथों को थामे हाथों में

खामोशी से पार किया।

 

हम-तुम साथ चले

जब पठारों से गुजरी राह

माथे पर बल पड़ आए

भटकी सी जब देखी राह

अनचाहे विश्राम किया।

 

हम-तुम साथ चले

जब आड़ी-तिरछी गुजरी राह

गहराई थी- ख़ामोशी

आँखों में थे भरे सवाल

मिलकर राह तलाश किया।

 

हम-तुम साथ चले

जब सँकरी होने लगी थी राह

आगे-पीछे चलना होगा

बस नज़रों में रहना होगा

इसको भी स्वीकार किया।

 

हम-तुम साथ चले

अब पड़ी है बीच में राह

तुम नज़रों से दूर हुए

और नज़रें भी कमजोर हुई

ठहर-ठहर कर पार किया।

 

हम-तुम साथ चले

अब गुजर चुकी है राह

यही है अगर मंज़िल तो

अब मंज़िल का भी भान नहीं

ये कैसा रास्ता पार किया।

 

हम-तुम साथ चले थे

शायद, अब यह भी याद नहीं

अब राह नहीं, अब चाह नहीं

अब कुछ भी एहसास नहीं

हम नहीं, तुम नहीं, नहीं, नहीं कुछ भी न SSSSSहीं……………।

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