सलीका
- nirajnabham
- Nov 4, 2021
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कितनी सीमाएं खींचोगे अपने मन के आँगन में
जंजीरें डाल के नाचोगे बरसेगी घटा जब सावन में ।
बिजली बन जीना पल में, गुम जाना अनन्त गगन में
या तिल-तिल कर जलना अनाहूत हवन में
अपरिमित को परिमित करने, किसने ठाना मन में
आकाश नहीं बँटता, झरोखा बनाने से भवन में।
पहचाने नहीं जाते देखा जिन्हें बचपन में
ऐसा ही लगूँगा मैं भी, शायद किसी जनम में ।
खुद को भुलाना, अजनबी बनाना यही रहा जीवन में
चाहे कभी जिया शहर में, या शरण लिया जंगल में ।
उपजा विकार जब निर्विकार के मन में
डोल रहा है दर्द आज भी आत्मा की तड़पन में।
आज और कल अलग खड़ा, टुकड़ा-टुकड़ा जीवन में
कोई आस नहीं दिखती, जीवन में या की मरण में।
नेह-विछोह सब कुछ होगा जुड़ने के अभिनंदन में
सृष्टि-समष्टि सब सिमटा, संयोग-वियोग के अंतर में।
स्मृति शेष अशेष हुआ सन्नाटा खालीपन में
पंख पसार विहग उड़े निर्भय नील गगन में।
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