सपनों का सच
- nirajnabham
- Oct 2, 2023
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सपने इन आँखों में थे
सपने उन आँखों में थे
सपने सबकी आँखों में थे।
नहीं थी तो- सपनों की डोर
जो जाती थी-
एक आँख से दूसरी आँख तक।
कोई सपनों का पुल नहीं था
न ही बुनी गई थी
कोई सपनों की राह
एक आँख से दूसरी आँख तक।
सपने सिमटे थे-
इनकी आँखों में, उनकी आँखों में
सबकी आँखों में।
हो रहे थे लोग बोर
तक-तक कर एक दूजे के सपने ।
अपने सपनों को इसने सराहा
उसने सराहा और सबने सराहा ।
फिर खटकने लगे सबको
एक दूजे की आँखों के सपने।
अब सपने कैद थे-
इनकी आँखों में, उनकी आँखों में
सबकी आँखों में।
गला खँखार कर इसने कहा-
किसी के खिलाफ नहीं मेरे सपने
केवल मेरी खुशियाँ हैं मेरे सपने
उसने दुहराया, सबने दुहराया
नहीं किसी के खिलाफ नहीं मेरे सपने ।
न इसने विश्वास किया उसकी बात का
न उसने किया विश्वास इसकी बात का
किसी ने नहीं किया विश्वास
किसी की बात का।
सपने अब ताकत थे-
इसके, उसके, सबके।
धार देना सपनों को
इसने शुरू किया तो-
उसने किया आरम्भ
इस्तेमाल सपनों का
हथियारों की तरह।
और फिर हुआ आरम्भ -
नंगा नाच सपनों का
इसके, उसके, सबके सपनों का।
सपने जो सजाए थे चाँदनी ने
आँखों में अपनी किरणों से
खुशबू से धोकर, पंखुड़ियों में लपेट कर।
बह रहे थे वही सपने धरा पर
नील लोहित लावा की तरह।
पर गए छाले मेरी नज़र में
उतप्त सपनों की आंच से
धुंधलका सा संशय
उतर आया निगाह में
संशय जो खोलता है- मुक्तिद्वार
संशय जो थामता है –
शक्ति का निर्बाध व्यापार
सपने अब भी इनकी आँखों में हैं
उनकी आँखों में है
सबकी आँखों में है।
सपनों में विश्वास
इनको, उनको, सबको है।
पर मेरी आँखों के सपनों में
अब संशय की शीतल छाया है
आशाओं के जुगुनू हैं
भरमाए जो माया है
बाँध रहा मिट्टी को जो जल
नीर है वह इन नयनों की
अपनी नज़रों से खुद को देखा
बात नहीं अब गैरों की
सच के सपने, सपनों का सच
सब सुलग रहा इन साँसों में
मैं ही जलता मैं ही जलाता
मेरे आँसू ही आग बुझाते हैं
मेरे सपनों में अब छाया है
पलकों के बिस्तर पर
अब कोई नन्हा परिंदा सोया है।
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