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nirajnabham

मेरा सच

सच कहता हूँ नहीं जानता था

कि मेरा सच मुझे ही

नंगा कर देगा वह भी सरे राह

शर्म की चादर लिए आँखों में

खड़ा रहा वहीं किनारे इंतज़ार में

और वह चला गया

भागता ही चला गया

वह जो अनावृत मैं था।

गुम होना ही नियति है

उसका भी जो गुम गया

अनावृतों के अथाह समुद्र में

उसका भी जो खड़ा रहा इंतज़ार में

आँखों में शर्म की चादर लिए

और गुम होता रहा

धरती में, आसमान में

खड़ा रहा और गुम होता रहा।

गुम होना ही नियति है

फिर भी कठिन है देखना

गुम होते हुए अपने आप को

कई तरह से, बार-बार, कई बार

लेकिन कहाँ गुम हो पाता कोई

उस तरह जिस तरह वह चाहता है

गुम होना – अपने आप में

अपने पूरे अस्तित्व के साथ ।

गुम होने से ही तो आता है

अहसास अस्तित्व का – इसलिए

गुम होना ही नियति है

जो हो कर भी गुम नहीं होता

वह खटकता रहता है

अहम की तरह, काँटे की तरह

पुरानी किसी चोट की तरह

टीसता है, तड़पता है, भागता है

समझता है – यही है ज़िंदगी

मेरे तरह, तुम्हारी तरह, सबकी तरह

सच कहता हूँ नहीं जानता था

कि मेरा सच मुझे ही

नंगा कर देगा वह भी सरे राह।

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