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मानवता का छाता

  • nirajnabham
  • Jan 30
  • 1 min read

जब-जब देता है कोई

मानवता की दुहाई

धिक्कारती है मानवता

हो जाने दे अर्थहीन

गुम जाने दे शब्द- मानवता।

सँजोने को निजता

प्रमाणित करने को श्रेष्ठता

निकृष्ट जीवों से,

दबाने उन वृत्तियों को

जो चुभते थे जो

कठोर पाषाण खंड से

निष्कलंक निर्झर की

तरल कोमलता को

किस उदात्त मन:स्थिति में

गढ़े थे निकष मानवता के।

कोरी भावुकता कह कर 

धकेला मन के गह्वर में

प्रकृति का निस्पृह अनुदान

बना कर साधन सुविधाएँ

बताता है विकास मानव

झुठलाता है मूँद कर आँखें

अपने ही सच को मानव।

देवदासी बन कर भी न रह सकी

भगवत समर्पिता मानवता

व्यवस्था की चकाचौंध में

सम्मानित नगरवधू है मानवता।

सर्वजन सुलभ है

मूल्य चुकाने की चाहिए क्षमता।

व्यक्ति केनिर्लज्ज अधिकार से

पददलित होती, कराहती है

प्रदूषित नदी सी मानवता।

और दुहराया जाता है

सृष्टि का सबसे बड़ा पाखंड

प्रतिदिन बेझिझक निर्द्वन्द्व

छोड़ जाते हैं लोग हर मोड़

निर्रथक बोझ मान कर मानवता

लेकिन होती है कड़ी जब धूप

तब कोसते हैं एक दूसरे को

ऐसे वक्त में आता है काम

तान लेते हैं मानवता का छाता।

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