जाने क्यों ऐसा लगता है
जो तेरी मुस्कान पर मोहित होता है
जो बाँहों में तुमको कसता है
जो आँसुओं से तेरे
दामन अपना भिगोता है
नहीं, मैं नहीं
शायद कोई और होता है।
जो खुद को खुदा समझता है
औक़ात पर अपनी रोता है
ललचायी आँखों से
दुनिया के तमाशे तकता है
नहीं, मैं नहीं
शायद कोई और होता है।
जो चलते-चलते सो जाता है
सोते-सोते जग जाता है
खाली मुट्ठी में
दुनिया को बंद समझता है
नहीं, मैं नहीं
शायद कोई और होता है।
खुद को निर्मोही उन्मुक्त बताता है
एक ही चोट से बिलख जाता है
फँस कर दुनिया में
दुनिया को झूठ बताता है
नहीं, मैं नहीं
शायद कोई और होता है।
ज्ञानी ,ध्यानी खुद को समझता है
सर से गुजर रहा पानी
पर देख नहीं पाता है
नाच रहा कठपुतली सा
पर आज़ाद समझता है
नहीं, मैं नहीं
शायद कोई और होता है।
खुद को रोज़ जमा करता है
बिखर-बिखर फिर जाता है
कैसे एक करे सबको
समझ नहीं पाता है
नहीं, मैं नहीं
शायद कोई और होता है।
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