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बहुत-कुछ

  • nirajnabham
  • Oct 22, 2021
  • 1 min read

साथ बहा ले जाती है बरसात बहुत- कुछ

छोड़ जाती है अपने पास बरसात बहुत-कुछ ।

धो देती है हाथों में जो सँभाला था जान की तरह

बदल देती है रास्तों की पहचान बरसात बहुत-कुछ।

भरा-भरा सा रहता है जब ये दिल

खाली-खाली सा कचोटता है- बहुत-कुछ।

डूबती उतराती सी लगती है जब जिन्दगी

आ जाती है साँसों की ख़ातिर हवा बहुत-कुछ।

हरियाली हरसा जाती है सूखे दिल को

सीली-सीली सी घुटन साँसों में समाती है बहुत-कुछ।

नदी नहीं कहलाता खेतों में बहता पानी

नदी को नदी बनाते हैं किनारे ही बहुत-कुछ।

हवाओं में घटा सा जब भी उड़ता है दिल

अंटकी हुई घटा सा बरसता भी है बहुत-कुछ।

सपनों की फसल उगी रही है अब तक

शायद बहा ले जाएगी अबकी बरसात बहुत-कुछ।

मौसम के बदलने का इंतज़ार है सबको

करने को मेहमान की विदाई बेक़रार है बहुत-कुछ।

पानी की तरह बह जाएगा सब कुछ नदी में

पानी पर खिचीं लकीरों की याद सताएगी बहुत-कुछ।

बदलता रहे तो सब बदल सकता है

चले न चले फिर भी फिसल सकता है - बहुत-कुछ।

भुगत रहा हूँ अपने होने की सज़ा

कौन लेगा मेरी जगह सोचता हूँ बहुत-कुछ।

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