प्रवास
- nirajnabham
- Oct 28, 2021
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जिन राहों पर मैं चला वहाँ पत्थर भी थे फूल भी
कितनी बातें याद रही, कितने गए हम भूल भी।
कितने सौदे खरे किए कितना घाटे का व्यापार किया
जब-जब ब्याज की आशा की डूब गया तब मूल भी।
यादों की मिट्टी में बोया तुमने जो था बीज कभी
हरी-भरी उस टहनी पर फूल खिले और शूल भी।
कितने साथी आन मिले इस पतली सी राह पर
क्या-क्या टूटा मेरे अंदर पड़ी आँख में धूल भी।
आँखें अंटकी, ठिठके पाँव जब कुछ सुन्दर दीख गया
कितने पाँव कुचल कर गुजरे और गए कुछ ठेल भी।
पोर-पोर में दर्द बसा है आँखें ढूँढे छांव को
राही हूँ बस याद रहा और गए सब भूल भी।
कहाँ-कहाँ से गुजरेगी राह, ये जानी सी अनजानी सी
कितने देखे फिर से देखे और गए बहुत से भूल भी।
कोई आस नहीं दिखती अब जाने पहचाने चेहरों पर
कुछ आशंका सच्ची लगती कुछ लगती निर्मूल भी।
न राह चुनी न साथ चुना पर मंज़िल फिर भी पानी है
बिन पतवार की नाव में बैठा दिखता नहीं है कूल भी।
घर की याद सताती है जाने कितने दिन बीत गए
यही आस चलाती है- होगी यह दुनिया गोल भी ।
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