माना कि तुम हो एक छोटा तारा
अँधेरा तुमने तो नहीं फैलाया
सोचती है यातना
भोग रही है तुम्हें
याद करके काटना
गिन-गिन कर एक-एक घड़ियाँ
क्या पता यही सुख हो!
कितने ही रंग बदलता है
पकने से पहले सुख
बदल जाएंगी एक रोज़
तेरी आँखें भी ।
तब टटोलना-
खुल रही होगी कोई गांठ भीतर
खिल रही होगी कली कोई
बाहर किसी आँख में ।
आप ही मुंद जाती हैं आँखेँ तेरी
जब टूटती है कोई पंखुड़ी ।
बस, इतनी सी बात का
अफसाना ना बनाना
वरना प्रदूषण को बढ़ने का
मिल जाएगा एक और बहाना ।
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