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nirajnabham

पुरुषत्व

मची है होड़ हरने की

प्रकृति का स्वत्व

टँगता फिरता है – दिन-रात

कीमतों की परचियाँ सूरज

हर उस चीज पर

जिसे छूती हैं उसकी किरणें ।

उतरती है- गलदश्रु पुरवा

खिड़कियों के रास्ते

भभकते घरों में

और बैठ जाती है वहीं

दीवारों की ओट में ।

नहीं मिलता है ठाँव

प्यासी पछुआ पवन को

गिरती पछाड़ खाती है

बंद खिड़की दरवाजों पर ।

नहीं हुए भारी बहुत दिनों से

सांवरी घटाओं के पाँव

सूनी कोख लिए घाटियाँ

क्या कभी सालेंगी

किसी के पुरुषत्व को ।

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