विलक्षण होता है दृष्टि विस्तार
शिखर से अनंत की ओर
ऊँचाई भर-भर जाती है नज़रों में
(धरा पर एक नया दृष्टिपात...........!)
ले जाएगा किन्तु कौन
उस शिखर तक मुझे?
हवा! नहीं यार
उसी ने तो पाल रखे हैं
ये ऊंचे-ऊंचे शिखर
मुझे चिढ़ाने के लिए।
पैदल पाँव ही चलना होगा
फूलती साँसों से
आत्म समर्पण करते
कदम-कदम पर बिखरे
सुंदरता के छोटे-बड़े-
कारिंदों के सामने।
फिर भी जरूरी नहीं
कि अंत हो आपका-
गुफा गह्वरों में।
गवाह हैं-
नदियों किनारे बने श्मशान।
सौभाग्यवती हुई होंगी-
कई सुंदरताएँ।
जी गई होगी जिंदगी-
शिखर से पहले।
मिट जाएंगे सारे सबूत
इन्हीं नदियों के साथ।
कहीं ज्यादा डराते हैं
मरती नदियाँ -
बढ़ते श्मशान-
बनिस्पत ऊँचे शिखरों
दम तोड़ते फेफड़ों के।
ज्यादा जरूरी है
बचाना शेरपाओं को
शिखर विजयी पर्वतारोहियों से
यूं ही खड़े रहेंगे-
ये शिखर अकेले
पैदा होते रहेंगे
नए शिखर विजेता
हर एक पीढ़ी में।
सवाल शिखर विजय का नहीं
सवाल है -
पीढ़ियों के पलने का।
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