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nirajnabham

पप्पू की बात - 1

दूर से ही दिखाई दे गया कि पप्पू बालकनी की रेलिंग से पीठ टिकाए अपने ही घर की दर-ओ-दीवार को गौर से देखे जा रहे थे। मैं उनके घर के दरवाजे पर खड़ा था लेकिन उन्होने कोई नोटिस नहीं लिया। लॉन में लगे ग्रिल गेट की कुंडी खड़काते हुए मैंने आवाज़ लगाई- ये दरवाजा क्यों खुला है?

क्योंकि बंद नहीं किया गया था- बिना मुद्रा बदले पप्पू ने जबाब थूका।

बंद क्यों नहीं किया गया - अंदर आते हुए पुनः मैंने पूछा।

क्योंकि रामू अभी-अभी बाहर गया है।

तो उसे बंद करके जाना चाहिए था!

ये उसका काम नहीं है। पप्पू ने घोषणा की।

गेट नौकर बंद नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा- अब मेरे स्वर में जिज्ञासा थी।

रामू के साथ मौखिक अनुबंध में यह काम शामिल नहीं है। जितने काम की बात हुई थी रामू उतना काम करता है और जितने पैसे की बात हुई थी मैं उसे देता हूँ। पप्पू ने स्पष्टीकरण की विज्ञप्ति बिना हिले-डुले जारी कर दी।

फिर भी कुछ तमीज़.., शिष्टाचार जैसी कोई चीज़ तो होनी चाहिए।

रामू नौकर है कोई रिश्तेदार, अतिथि नहीं। पप्पू ने मेरी बात लगभग काटते हुए उत्तर दाग दिया।

फिर किसी की तो ज़िम्मेदारी होगी? हार स्वीकार करते हुए मैंने कहा।

“दुनिया में कोई चीज किसी दूसरे की ज़िम्मेदारी नहीं होती।” इस बार पप्पू के स्वर में शांति थी।

मैं समझ गया कि पप्पू किसी विषय पर गंभीरता से सोच रहे है। पप्पू की ये बहुत बड़ी विशेषता है कि पप्पू होने के बावजूद भी जब वे किसी विषय पर गंभीरता से सोचते हैं तो उस वक्त वह किसी भी चीज के लिए किसी को दोषी ठहराने के मूड में नहीं होते है। इसलिए मैं चुपचाप उनके पास जा कर खड़ा हो गया। मुझे पास देखकर पप्पू ने अपनी मुद्रा बदली और मुझसे मुख़ातिब होते हुए वार्तालाप की मुद्रा में आ गए। पप्पू की समस्या यह है कि उनकी जो विचारधारा हिमालय से निकलती है वह समुद्र में मिलने की जगह गाँव और शहरों की नालियों में ही गुम हो कर रह जाती है। पप्पू के विचारों से पूर्व परिचित होने के कारण मुझे पता था कि पप्पू से पूरी तरह सहमत होना या पूरी तरह असहमत होना दोनों ही कठिन है लेकिन पप्पू की मौज़ का मजा मैं चूकना भी नहीं चाहता था इसलिए एक अच्छे श्रोता का रोल निभाने के लिए मैं प्रस्तुत हो गया।

भारत में कुल कितने वोटर हैं? पप्पू ने बिना भूमिका के सवाल दागा।

नब्बे करोड़ से कम क्या होंगे।

चलो नब्बे करोड़ ही मान लेते हैं। और इसमें से कितने वोट देते होंगे?

साठ-पैंसठ करोड़ तो देते ही होंगे।

और इसमें से हमारे-तुम्हारे जैसे मध्य-वर्गीय और गरीब कितने होंगे?

पचासेक करोड़ तो मान ही लो। लेकिन तुम ये सब क्यों पूछ रहे हो?

टीवी देखते हो? पप्पू ने बिना जवाब दिये सवाल दागा।

न्यूज भी देखते हो या एकता कपूर की बंधुआ मजदूरी करते हो?

पप्पू की आवाज में जो हिकारत थी उसे नजरअंदाज करते हुए मैंने जवाब दिया- हाँ भाई हाँ । न्यूज़ भी देखता हूँ।

तो फिर तुमने न्यूज़ स्टूडियो में सूट-बूट वाला लंगर तो देखा ही होगा?

न्यूज़ स्टूडियो में लंगर!

हाँ भाई। वही लंगर जो वजनदार होता है और उसके मुँह से नुकीले हुक लगे होते है। पप्पू ने मेरा ज्ञानवर्धन करने वाले अंदाज में कहा।

पर ऐसा लंगर तो जहाजों पर होता है। जब उसे जहाज से बांध कर पानी में डाल देते हैं तो जहाज एक जगह पर खड़ा रहता है। मैंने भी अपने ज्ञान की बीन बजाई- जो पानी में होता है वह है लंगर और जो न्यूज़ स्टूडियो में होता है उसे कहते है एंकर।

पानी में हो या स्टूडियो में दोनों का काम तो एक ही होता है। पानी वाला जहाज को फंसा कर रखता है और स्टूडियो वाला बात को फँसा कर रखता है। वैसे भी हिन्दी भाषी होने के नाते मैं तो उसे लंगर ही कहता हूँ।

ठीक है भाई अब आगे। मैंने अपने धैर्य को एकत्रित करते हुए पूछा।

हाँ तो स्टूडियो में सूट-बूट वाले लंगर के साथ होता है सूट-बूट वाला लाल बुझक्कड़।

लाल बुझक्कड़ नहीं भाई वे होते हैं एक्सपर्ट यानि कि विशेषज्ञ।

पप्पू ने लगभग भड़कते हुए कहा वे विशेषज्ञ-उसेसज्ञ कुछ नहीं होते। तुम्हें कुछ नहीं पता। मैं बताता हूँ। पप्पू ने समझाते हुए मेरा ज्ञान वर्धन किया। इस दुनिया में बहुत से लोग पढ़ते हैं और बहुत-बहुत पढ़ते हैं। अब कोई पढ़े या ना पढ़े भगवान सबको समान्य ज्ञान तो एलाट कर ही देते हैं लेकिन जो लोग जरूरत से ज्यादा पढ़ जाते हैं उनके दिमाग में उनका समान्य ज्ञान उनके विशेष ज्ञान से टकराने लगता है जिससे कि वे पागल हो जाते है और फिर उन्हें पागलखाने में भर्ती करना पड़ता है।जब डाक्टरों को लगता है कि अब ये वापस समाज में रहने लायक हो गए हैं तो चेक करने के लिए उन्हें लाल बुझक्कड़ बना कर न्यूज़ स्टूडियो में भेजा जाता है। जब लंगर द्वारा बार-बार उकसाने पर भी वह लाल बुझक्कड़ बना रहता है और लंगर की नकल करने की कोशिश नहीं करता है तब डाक्टर उस पागल को समाज में रहने लायक मान कर डिस्चार्ज कर देते हैं। पप्पू की इस धमाकेदार सूचना ने तो मुझे कसम खाने पर मजबूर कर दिया कि आगे से मैं किसी भी विशेषज्ञ से पर्याप्त और सुरक्षित दूरी बनाए रखूँगा। हालाँकि, मैं अभी भी पप्पू से पूरी तरह से सहमत नहीं था और जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि कभी भी पप्पू से पूरी तरह सहमत होना संभव नहीं होता। इसलिए बात आगे बढ़ाने की गर्ज़ से मैंने धीरे से कहा- लेकिन ये वोट के साथ लंगर और लाल बुझक्कड़ का चक्कर क्या है?

जेइ बात तो अब तक मेरे दिमाग में दंगा कर रहा है। अब भाषा के साथ-साथ पप्पू के पैंतरे में भी परिवर्तन साफ नज़र आने लगा था। उनके चेहरे पर लंगरों, माफ़ करेंगे एंकरों जैसी उत्तेजना और आक्रोश का मिला जुला भाव दिखाई देने लगा था।

कुछ बताओ तो सही- मैंने धीरे से डरते हुए पप्पू को टोका।

कुछ नहीं भाई। कल रात एक न्यूज चैनल पर मैंने एक लंगर और लाल बुझक्कड़ के बीच की बकवास चर्चा सुन ली।

लंगर पूछता है- मिस्टर लाल बुझक्कड़, क्या आपको लगता है कि इस देश में सरकार को कारखाने चलाने चाहिए, स्कूल चलाने चाहिए या व्यापार करना चाहिए। लाल बुझक्कड़ जो एक हिन्दुस्तानी माँ के पेट से पैदा हुआ था उसने तो पहले अंग्रेजी में उवाचा- आई थिंक गवर्नमेंट हैज नो बिज़नस टू बी इन बिज़नस। सरकार को सभी कारखाने बेच देने चाहिए। पानी प्राइवेट लोग सप्लाई करेंगे, अस्पताल प्राइवेट चलाएंगे, वही लोग बिजली बनाएंगे भी और बेचेंगे भी। सरकार का काम इन प्राइवेट लोगों की मदद करना होना चाहिए। लाल बुझक्कड़ पिछले नब्बे सेकेंड से बोल रहा था इसलिए लंगर उसे रोकते हुए बीच में कूद पड़ा- लिस्न टू मी। और फिर वह एक लंबी सी लिस्ट से चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ने लगा कि सरकार को फलाँ-फलाँ कंपनी में कितने करोड़ का घाटा हो रहा है।लंगर के मुँह से झाग निकलने लगा था। वह जिस गुस्से में बोल रहा था कि लगता था कि सरकार सारे घाटे की भरपाई उसके बाप की कमाई से करने वाली हो। तभी ये बात मेरे दिमाग में आई और मैंने टीवी बंद कर दिया।

तू ही बता भाई सरकार बानवे खातिर वोट डालने कौन गए- गए पचास करोड़ गरीब, मध्य वर्गीय, हमारे-तुम्हारे जैसे, जिन्होने सूट साफ तो किया होगा पर उनके सात पुस्तों ने सूट पहना नहीं होगा कभी जिंदगी में। और हम सब जनों ने जेइ सोच के तो सरकार चुनी कि अच्छी सरकार आएगी तो हमारे लिए अच्छे स्कूल, कॉलेज बनवाएगी, अच्छे अस्पताल बनवाएगी, सस्ता बिजली-पानी देगी, कुछ धंधा खोल कर जवानों को रोजगार देगी लेकिन अब जब सरकार बन गई तो ये नमूने, लंगर और लाल बुझक्कड़ टीवी पर आकर खटराग गा रहे हैं। जे तो वो बाली बात हो गई न कि गाँव वालों ने मिल कर चौकीदार रखा और दो होशियार मिल के चौकीदार को समझाने में लग जाए कि तेरे बदले गाँव की चौकीदारी हम कर देंगे, तू तो बस मेरे घर की रखवाली करते रहना।

भाई साब उन लंगूरन की बात सुन के अपनी तो ये जली है कि मत पूछो। पप्पू बेरोजगार इस उम्र में अब इस या उस, किसी भी, सरकार से रोजगार मांगने तो जाएगा नहीं पर सरकार की कृपा से जे चांस मिल जाए न तो बस्स! मज़ा आ जाए।

कैसा चांस!

वही जो मेरे दिमाग में घूम रहा है-कि सरकार ने उस लंगर और लाल बुझक्कड़ को जनता के हवाले कर दिया है और कहा है कि ये तुम्हारे यानि जनता के अपराधी हैं। इन्होंने तुम्हारा अपमान किया था अब तुम भी इनका जी भर कर अपमान कर लो। सोचो! भाई साब, क्या सीन होता। जैसे शादियों में गठबंधन होता है न वैसे ही इन दोनों का टाईबंधन कर घुमाते अपने गाँव की गलियों में। हर दरवाजे पर खड़ा कर कहते- कि अब पूछो घर वालों से कि उन्होने किस काम के लिए सरकार को वोट दिया था। जब वे चलते-चलते थक जाते तो एक लात तुम मारते लंगर के पिछवाड़े पर, लंगर के साथ-साथ लाल बुझक्कड़ भी घिसट कर अगले दरवाजे पर पहुँच जाता, फिर मैं यानि कि पप्पू लाल बुझक्कड़ के पिछवाड़े पर एक लात लगाता तो लाल बुझक्कड़ के साथ-साथ लंगर भी अगले दरवाजे पर पहुँच जाता। इस तरह से तुम और मैं यानि कि पप्पू दोनों लंगर और लाल बुझक्कड़ के पिछवाड़े लात मार-मार कर पूरे गाँव में घुमाते हैं। सोचो! भाई साब, क्या सीन होता!

पप्पू, लंगर और लाल बुझक्कड़ के पिछवाड़े पर लात मारने की कल्पना में खो गए। मैं चुपचाप उठ कर खिसक लिया और जाते वक्त उस ग्रिल गेट को बंद करता हुआ आया। अरे हाँ, इसका मतलब ये नहीं कि मैं अपने आप को रामू से भी गया बीता समझता हूँ। अब ये आते-जाते वक्त गेट बंद करना न वो मेरी आदत है, बस वैसे ही हमेशा से।

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