पहचानी नहीं जाती
अपनी ही तस्वीर
अपनी ही आवाज।
लगती हैं अजनबी
चीजें बाहर से
वैसी नहीं दिखती
जैसे अंदर से दीखती ।
तभी तो अजनबी हैं हम
अपने-अपने घेरे में।
नहीं टूटता है घेरा
चाह कर भी क्योंकि-
कोई भी दीवार
अपने आप नहीं गिरती
कहाँ हैं शंकर!
करें नष्ट एक बाण से
दुर्ग सारे अजनबीपन के
और दिखाई दे
अपना अपना निर्मल रूप
मानसरोवर के जल में
एक जैसा-भीतर से
और बाहर से भी ।
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