तुम मुझे चाहो या न चाहो
ये तुम्हारे वश में है जरूर
पर मुझे भुला देना
नहीं, आसान नहीं होगा, हुजूर
माना अच्छाई नहीं एक भी मेरे अंदर
पर मोती चाहने वाले तो
छान देते हैं पूरा का पूरा समंदर
व्यापक आल-जाल, शैवाल से
तलाश व्यर्थ नहीं होती
मेरे बुराई का ढिंढोरा क्यों पीटते हो
अच्छे होते ही हैं कितने
और भूल भी जाते हो कि-
एक आरोप से राजनीति शुरू हो जाती है
तुमने तो मुझे खारिज ही कर दिया
तो अब प्रेम का आरंभ क्यों नहीं करते
मैंने तो तुम्हें चाहा था –
केवल इसलिए कि – तुम जिंदा थे
अपने होने का अहसास तुम्हारे पास था
इसलिए नहीं कि –
तुम कर सकते थे फैसला
सही और गलत का
प्रेमी न्यायाधीश नहीं होते
जो करते हैं फैसला
आँखों पर पट्टी बांध कर
उन्हें क्या पता कि-
होती है कितनी लज्जत गुनाह में
पूछो जरा उनसे जो-
तरसते रहे उम्र भर एक गुनाह के लिए
डाल लो बोझ कुछ गुनाहों का
अपने हसीन कंधों पर
फिर आना कभी मेरे पास
बेझिझक, निःसंकोच क्योंकि-
गुनहगार का गुनहगार से
होता है एक नाता
जिसे जानता नहीं विधाता
उसने तो मनुष्य बनाया
कर्म का खेल बनाया
लेकिन इस खेल का नियम बनाना भूल गया
हम जैसे गुनहगार
अनुभवी खिलाड़ी हैं इस खेल के
हम ही करेंगे फैसला हार और जीत का
पूरी खेल भावना के साथ
अब तुम मेरे साथ आओ या ना आओ
क्या फर्क पड़ता है
हार जीत से डरते हो
अरे दर्शक बनने में क्या रखा है
खेल के बाद दर्शक भी
उतर आते हैं मैदान में
ये अलग बात है कि
पुरस्कार कोई और ले जाता है
इसलिए, क्या फर्क पड़ता है
तुम मुझे चाहो या न चाहो।
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