कहाँ कर पाती हैं न्याय
दूर से किरणें
चमकने वाले सूरज की
कोई कँपाती ठंड से
कोई जलती आग से
कोई उपजाती जीवन
मिल कर जल से।
उल्लसित प्रात!
बिहंसती शाम!
डराती रात!
किरणों की हैं करामात।
क्या उम्मीद
फिर टूटे तारों से
जल जाएंगे
आए हैं टूट कर
कक्षा से भटक कर
थोड़ी सी रोशनी
यहाँ-वहाँ बिखराकर।
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