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गहरे उतर जाऊँ

  • nirajnabham
  • Mar 13, 2022
  • 1 min read

रेगिस्तान से फैले वर्तमान में

फूल सी टंगी मुस्कान का क्या करूँ?

अपने ही पसीने से प्यास नहीं बुझती

दूर क्षितिज पर कौंधती है जो आस

उस तक कोई राह नहीं पहुँचती ।

ठहर भी जाऊँ तो नहीं दिखेंगे

अपने ही कदमों के निशान

जलन उतनी ही होगी वहाँ भी

जिन राहों पर बिछे हैं पैरों के निशान ।

जी चाहता है-

अतीत का कुआँ खोद कर

उतर जाऊँ, गहरे जमीन के अंदर

उससे झाँकेगा जो टुकड़ा भर आकाश

उसे ही सीमा बना लूँ

और एक दिन-

उड़ती रेत बना देगी

एक समाधि, मेरी अपनी समाधि ।

खिलेंगे फूल उसके चारों ओर

बसेगा उद्यान, रुकेंगे कारवाँ

उतारेंगे लोग अपनी व्याधि

करने दूर वर्तमान की थकान

दो पल सुस्ताएँगे लोग

पेड़ों की ठंडी छाँव में, नर्म रेत पर।

जी चाहता है यहीं ठहर जाऊँ

कहीं गहरे उतर जाऊँ ।

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