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खुद को समेट कर

  • nirajnabham
  • Oct 2, 2023
  • 1 min read

बेवजह डरता हूँ!

कहता हूँ मैं अपने आप से

जब भी मिलता है कोई मुझसे

सलीके से इंसान बनकर


अच्छा लगाने लगता है दिन

पौधों को पानी देकर

नौकर को छुट्टी देकर

घूमते हैं अच्छे पड़ोसी बनकर


कितने खूबसूरत दरवाजे

कितने मज़बूत दरवाजे

सफाई से बंद दरवाजे

चलो देखते हैं थोड़ा और चल कर


दुकानें हैं खरीददार हैं

ठहरे हुए लोगों में भी बेचैनी है

मेरा भला क्या काम यहाँ

मिलती नहीं किसी की किसी से नजर


आगे निर्जन है हरियाली है

बुलाती है हवा का अपनापन

डरता है अंदर का जानवर

अच्छा है कोना जिसे कहते हैं घर


उत्साह नहीं था अब कदमों में

वापसी लगने लगी बड़ी लंबी

नमस्ते का जबाब नहीं दिया पड़ोसी ने

अच्छा है रहता हूँ खुद को समेट कर

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