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कहीं जाने को दिल नहीं करता

  • nirajnabham
  • Jul 28, 2024
  • 1 min read

जहाँ में रहूँ तो रहने का भी दिल नहीं करता

मौज ए वक्त गिनता रहूँ बैठे दिल नहीं करता

 

खिल रहे हैं फूल कितने हसरतों के वीरानों में

कुछ नहीं बदलेगा मानने को दिल नहीं करता

 

सुबह खिली थी कली शाम को जो ढल गई

बेवफा कहने का फूलों को दिल नहीं करता

 

उसके दामन का साया दोपहर की धूप में

ख्वाब से ऐसे जागने को दिल नहीं करता

 

देखा जो उनकी आँखों में तो बस डूब ही गया

खुद पर यकीन करने को भी दिल नहीं करता

 

परत-दर-परत वो उतारता रहा चेहरा अपना

कितने बदल गए हो कहने का दिल नहीं करता

 

कभी शुमार न थे मेरी ख्वाहिशों में हमसफर

दास्तान तन्हाइयों का सुनाने को दिल नहीं करता

 

ये कौन कर रहा है इंतजार मेरा सरे बाजार

मुसाफिर का कहीं जाने को दिल नहीं करता।

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