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nirajnabham

ऊँचाई

यूँ हीं, बस घूमते घूमते

अपने निजी पैरों पर

साक्षात्कार हो गया

अपने आप से।

जी हाँ, मैं जंगल गया था

वहशी शोर

दम घोटूँ वातावरण

सब कुछ आदिम था।

मैं जंगल में था - और

जंगल खुद में मगन।

शेर के पंजों सी चमक दमक

आक्रामक खूबसूरती

सब लील जाने को

आतुर शक्ति

थोप रही थी हताशा

उदास निराश जीवों पर

वैसी ही हताशा-

जैसी मेरे चेहरे पर थी।

घबरा कर मैं ऊपर उठ गया

हवा में थोड़ा ऊपर!

एक आशंकित दृष्टि डाली

नीचे जंगल पर।

अब वह भयावह न था

बल्कि था- कुछ हास्यास्पद भी

वहाँ नीचे- एक संघर्ष था

सब कुछ- पा लेने का

सीमाहीन नियमविहीन।

मैं हवा में था

और देख सकता था

हर कोई- जो भी वहाँ था

चाह रहा था अधिकार

प्यार पाने का

प्रकृति पर कब्जा जमाने का।

प्रकृति सब सहती है

किन्तु प्यार नहीं देती

अधिकार चाहने वाले को।

थोड़ा ऊपर उठ कर देखो

साफ दिखाई देती है हताशा

दौड़ में छूट जाने की

मोह से न छूट पाने की।

देखता हूँ और सोचता हूँ

क्यों नहीं उठ पाते हैं लोग

थोड़ा ऊपर- अपने आप से।

सोचता हूँ और पूछता हूँ

यूँ हीं, बस घूमते-घूमते-

उठ जाता हूँ जब भी ऊपर

हवा में अपने आप से।

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