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nirajnabham

उद् विकास

कितने अच्छे लगते थे

ये चाँद-तारे

ये नदिया, ये हरियाली

ये रिश्ते, ये नाते

और यूँ ही बीतते गए दिन

दिन-रात, रात-दिन।

क्या कुछ देखा

क्या कुछ समझा

जानी कितनी बात।

लंबी हो गई फैल कर

छोटी थीं जो दूरियाँ।

वह आँगन, वह किनारा

लग गई बाड़

उग आए खर-पतवार ।

अब अच्छा लगता है –

वह- जो मैं नहीं हूँ

वह- जो मेरे पास नहीं है।

कितना पानी बहा अब तक

बचा वही जो दबा था

दूर कहीं गहरे तक

लोग बदल गए या समय

दुनिया बदल गई या मैं स्वयं

एक दिन बह जाएगा

यह प्रश्न भी

रेत पर धड़कता दिल छोड़ कर।

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