top of page

उद् विकास

  • nirajnabham
  • Apr 14, 2022
  • 1 min read

कितने अच्छे लगते थे

ये चाँद-तारे

ये नदिया, ये हरियाली

ये रिश्ते, ये नाते

और यूँ ही बीतते गए दिन

दिन-रात, रात-दिन।

क्या कुछ देखा

क्या कुछ समझा

जानी कितनी बात।

लंबी हो गई फैल कर

छोटी थीं जो दूरियाँ।

वह आँगन, वह किनारा

लग गई बाड़

उग आए खर-पतवार ।

अब अच्छा लगता है –

वह- जो मैं नहीं हूँ

वह- जो मेरे पास नहीं है।

कितना पानी बहा अब तक

बचा वही जो दबा था

दूर कहीं गहरे तक

लोग बदल गए या समय

दुनिया बदल गई या मैं स्वयं

एक दिन बह जाएगा

यह प्रश्न भी

रेत पर धड़कता दिल छोड़ कर।

Recent Posts

See All
सामर्थ्यहीन शब्द

कर पाते व्यक्त अंतर्द्वंद्व, शब्द  उन पलों के जब होता है संदेह अपनी ही उपलब्धियों पर खड़ा होता है अपने ही कठघरे में अपने ही सवालों से नज़र...

 
 
 
मानवता का छाता

जब-जब देता है कोई मानवता की दुहाई धिक्कारती है मानवता हो जाने दे अर्थहीन गुम जाने दे शब्द- मानवता। सँजोने को निजता प्रमाणित करने को...

 
 
 
वे दिन ये दिन

कितने लापरवाह थे दिन वे भी कितना पिघल आता था हमारे बीच जब खीजती थीं तुम और गुस्सा होता था मैं फिर किसी छोटे से घनीभूत पल में जाता था जम...

 
 
 

Comments


9760232738

  • Facebook
  • Twitter
  • LinkedIn

©2021 by Bhootoowach. Proudly created with Wix.com

bottom of page