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nirajnabham

आलोड़न

चुनते-चुनते खार चमन में

आँख में लाली छिटकी है

जब भी कोई फूल खिला

एक साँस सी दिल में अंटकी है।

धुआँ धुआँ सा फैला अग-जग

प्यास गले में अंटकी है

बिसर गई थी बात जो दिल से

राह में अब तक भटकी है।

कौन यहाँ किसकी सुनता है

जान सभी की अंटकी है।

ऊँघ रहा है कोना-कोना

उबासी दीवार पर लटकी है।

आ जाए शायद किरण कोई

धीमे से खिड़की यूँ खोला

कौंध गया कोना-कोना

फिर झटके से दीवार हिली

संग सदियों का विश्वास हिला

नीड़ में बैठा कोई पंछी

दुबका फिर पंख पसार चला


खोल खिड़कियाँ सभी दिशा की

धुआँ-धुआँ भर जाने दो

होता यदि और घना है तो

अँधियारा यूँ ही बढ़ने दो

दृष्टि में चाहत भर-भर लो

मुक्त कल्पना हो जाने दो।

इस उथल-पुथल अँधियारे में

सृष्टि का है बीज छुपा

झिझको मत बाहें फैला दो

धरती और आकाश आज

दूर क्षितिज पर मिल जाने दो।

दीप जलाओ देहरी पर, जी भर

सुनता क्या है आँखों की

दिल पर भी विश्वास करो

आग बुझेगी जल कर ही

अरमानों को आग लगाने दो

लट बिखरा लो कंधों पर

बिजली को और चमकने दो

मन आँगन धरती डूबे

बादल को टूट बरसने दो।

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