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आत्ममुग्ध

  • nirajnabham
  • Oct 29, 2021
  • 1 min read

किसकी देहरी पर दीप जले, किसके यहाँ दिवाली थी

सारी रात न सो पाया, आँखों में मेरे लाली है।


दीप जले या फूल खिले, राही प्रीत न करता है

जिसको चलने की लगन लगी उसकी बात निराली है।

जो भी चाहे साथ चले, इसमें मेरा क्या जाता है

मुझसे कोई आस न करना मेरी जेब तो खाली है।

साथ चलो तो चुप ही रहना, ध्यान न मेरा तुम हरना

मेरी सुबहें उजली-उजली, शाम मेरी मतवाली है।

कितने गुजरे होंगे पथ से, कितने धुनी रमा बैठे

प्रतीक्षा क्या करना, नहीं कोई सवारी आने वाली है।

सजी दुकानें हर चौराहे, भँवरा दौड़ा फूल पर

रसना के वश मनवा भटका, लगाम कुछ ढीली ढाली है।

एक राह के राही हैं पर अपनी अलग इकाई है

मेरी बात का दुख न करना बात ये देखी भाली है।


सबको चलना ही पड़ता है- राजा हो या रंक, फकीर

जो इस राह का मर्म न समझे उसकी तो ठेला ठाली है

साथ जिएंगे साथ मरेंगे, कितनों ने कसमें खाईं हैं

नादानों की बातें हैं, इससे राह न कटने वाली है।


इधर-उधर क्या तकना, क्या अब भी कोई खटका है

जल्दी-जल्दी पाँव बढ़ा, मंज़िल बस आने वाली है।

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