जानता हूँ और समझता भी हूँ आकाश कुसुम !
कौन संतुष्ट होता है
किसी के समर्पण से
कीचड़ सने पैरों से
आँसू धुले हाथों से
जमा किए जो
कामनाओं के फूल
सब तो अर्पित कर दिए
अब तो शेष है
एक खालीपन और
उसमें खुद को बहलाता मैं
पर अब भी तुम्हें देखता हूँ
अच्छी लगती हो
आकाश कुसुम !
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