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nirajnabham

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का घरेलू संस्करण

अभी-अभी जो मुझ पर चिल्लाई थी वह औरत मेरी पत्नी है। वह मेरी पत्नी इसलिए है कि मैंने उससे शादी की है। मैंने उससे शादी क्यों की, यह एक राजनीतिक सवाल है जिसका जवाब नहीं दिया जा सकता। इसे सिर्फ टाला जा सकता है। बहरहाल अभी-अभी जो चिल्लाई थी उसका कारण यह था कि हम दोनों के बीच जो कूटनीतिक वार्ता चल रही थी वह असफल हो चुकी थी। उसका चिल्लाना एक आक्रामक वक्तव्य था जो प्राय: शिखर वार्ताओं के असफल हो जाने के बाद दोनों पक्षों द्वारा दिया जाता है। किन्तु यहाँ एक पक्ष यानी मैं चुप रहा। मामले को शीत युद्ध की सीमा से आगे बढ़ाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। पत्नी लगातार चिल्लाती रही। उसका रवैया पूंजीवादी से साम्राज्यवादी होते हुए फासिस्टवादी होकर रुक गया क्योंकि यह उसकी अंतिम सीमा थी। अपनी अंतिम सीमा मैंने पहले ही छू ली थी। इस तरह शांति एवं व्यवस्था की एक बार फिर जीत हुई। साम्राज्यवाद को पुन: वापस अपने घर लौटना पड़ा। आइए इस मौके का फायदा उठा कर हम इस विवाद की तह में जाने का प्रयास करते हैं।


प्रत्येक विवाद में दो पक्ष होते हैं - पहला पक्ष और दूसरा पक्ष। कभी-कभी पहला पक्ष दूसरा पक्ष हो जाता है तो कभी दूसरा पक्ष पहला पक्ष हो जाता है। पहला पक्ष किसी चीज पर अपना दावा पेश करता है क्योंकि वह महसूस करता है कि इस पर दावा किया जा सकता है। दूसरा पक्ष उसके दावे का विरोध करता है क्योंकि उसे लगता है कि पहले पक्ष के दावे का विरोध किया जा सकता है। कुछ दिनों की खींचतान के पश्चात दोनों पक्ष एक दूसरे से सहमत न होते हुए भी इस बात पर सहमत हो जाते हैं कि विवाद को बातचीत के द्वारा सुलझाया जा सकता है । लिहाजा विवाद बातचीत की मेज पर आ जाता है। फिर समझौता होता है। वादे किए जाते हैं, आश्वासन दिए जाते हैं । पुरुष प्राय: पत्नी या प्रेमिका जो भी उपलब्ध हो, उससे चाँद-तारे तोड़ कर लाने का वादा करता है। दूसरी तरफ पत्नी या प्रेमिका जो भी होती है, वह चुपचाप सुनती है। सुनकर खुश होती है। लेकिन, जब समय आता है तो कोई भी प्रेमिका या पत्नी चाँद-तारे नहीं माँगती। वह साड़ी - लंहगा, स्नो - पाउडर से ऊपर कभी नहीं उठती। पुरुष को इन तुच्छ माँगों पर खीझ होती है। उसे चाँद-तारे लाना आसान लगता है। उधर पत्नी समझती है कि वह वादाखिलाफ़ी कर रहा है। वह विवाद जो बातचीत के द्वारा शान्त किया गया होता है फिर उभर आता है क्योकि वह शान्त तो होता है- ख़त्म नहीं।

यदि आप पत्नी के बदले सरकार से उलझना ज्यादा आसान समझते हैं तो उन विकल्पों पर विचार कर सकते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी पाए जाते हैं जिनकी पत्नियाँ ही सरकार होती हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो सरकार को ही पत्नी समझते हैं। जिनकी पत्नियाँ ही सरकार होती हैं उन दंपत्तियों के बीच विवाद ही नहीं होता क्योंकि बेचारा पुरुष पहले ही पत्नी नामक साम्राज्यवादी शक्ति के आगे आत्म समर्पण कर चुका होता है। कोई गाँधी, नेहरू, तिलक, पटेल उनके मन में आज़ादी की भावना पैदा नहीं कर सकते। ऐसी पत्नियाँ सिर्फ़ तन-मन को ही गुलाम नहीं बनती बल्कि इनका साम्राज्य दिल से लेकर पॉकेट तक फैला होता है। पैसा और प्यार दोनों पर इनका समान अधिकार होता है। आम बोलचाल की भाषा में ऐसे पति जोरू का गुलाम कहलाते हैं लेकिन अपनी नज़र में वे एक रोमांटिक और संवेदनशील प्राणी होते हैं। सभी वर्तमान और भावी पत्नियों की दिली ख़्वाहिश ऐसा ही पति पाने की होती है फिर भी कतिपय अपरिहार्य कारणों से ये पत्नियाँ ऐसे पतियों की पर्याप्त इज्ज़त नहीं कर पाती हैं और इसका सारा दोष भी वे अपने इन्हीं निरीह पतियों पर डालती है। अनुभवी स्वामी तुलसीदास जी ने सहज ही कहा है कि- "समरथ को नहीं दोष गुसाईं"।

वैसे पति जो सरकार को भी पत्नी समझते हैं ऊँची सामाजिक हैसियत वाले होते हैं। उनकी सगी पत्नियाँ भी अपने इस सरकारी सौतन का कतई बुरा नहीं मानती बल्कि अपने पतियों के इस अधार्मिक गठबंधन की चर्चा अन्य पत्नियों से सगर्व करती हैं। सरकार से उनके संबंध जितने नाजायज होते हैं उनकी इज्ज़त न केवल अपनी पत्नी की नज़र में बल्कि दूसरों की पत्नियों की नज़र में भी उतनी ही बढ़ती है। इसका कारण यह है कि पत्नी नामक साम्राज्यवादी शक्ति का निहित स्वार्थ इसी में होता है कि उसका पति सरकार रूपी हरे-भरे खेत को सांढ की तरह चर सके। याद करें कि जनरल नोरिएगा हों या सद्दाम हुसैन अमेरिका ने उनके नाजायज कार्यों पर तब तक कोई ध्यान नहीं दिया जब तक वे अमेरिकी हितों की साधना में लगे रहे। जैसे से ही वे इससे विरत हुए उस साम्राज्यवादी शक्ति की त्योरियां चढ़ गईं। घमासान मच गया। मियाँ-बीवी के इस झगड़े में संयुक्त राष्ट्र संघ का काज़ी भी कुछ नहीं कर सका। आमीन ।

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