सोचता हूँ कभी-कभी
चला कहाँ खो गया कहीं
हवा संग-संग चलती रही
रंग कितने नए बदलती रही
कभी गरम, कभी नरम
कभी तेज़ सुस्त चलती रही
मौसम नए नित बदलते रहे
मैं चलता रहा सब बदलते रहे
ऐसा कभी गुमान न था
बदल जाऊंगा मैं भी एक दिन।
आँखों के आगे है जो ढल रही
मेरे सपनों की शायद एक लड़ी
कभी देखा था ऐसा तो याद है
पर ताबीर में है कुछ गड़बड़ी ।
कानों में हवा तभी बोल पड़ी
मेरे ही दिखाए सपनों पर
कब तेरा भला अधिकार रहा
जब मुझे नहीं है आपत्ति
तेरी इसमें क्या है क्षति ।
आईना अगर न मिले कहीं
देख ले अपनी परछाईं
पहले तो खुद को पहचान
फिर उठाना उँगलियाँ ।
साँसों के सहारे आँखों में
बसना सपनों का काम है
जो बदल गया खुद ही
सपनों पर लगाता इल्ज़ाम है
ठिठक गया यह भाँप कर
टटोला खुद को काँप कर
मुड़ कर देखा पीछे बिखरे
अपने सपने सारे बेकार
नीर विहीन नैनों के सपनों की
ताबीर नहीं होती
इतनी बात समझ ले कोई
फिर कोई पीर नहीं होती।
Comments