गर्भगृह के शीतल प्रस्तर खंडों में
क़ैद है अपार शांति
लौट आता हूँ बार-बार
देखकर वज्रद्वार
एक भूली हुई हरियाली पर
छूट गई है जो बगल से गुजरते
रास्तों की आपाधापी में
धूल सने दूब पर पदचिन्ह उकेरता
देखता हूँ – दूर...
हरी फुनगियों पर नीले आकाश में
अनायास बहता श्वेत हँस
जिसकी काया का गतिमान सौंदर्य
बदलने लगता है यथार्थ को कल्पना में
तभी चुभता है एक शोर
दिल में विश्वासघात की तरह
मिटाने लगता है बढ़ता गुबार
शेष हरियाली और मेरे पदचिन्ह
बंद है अभी भी वज्रद्वार।
बढ़ जाता हूँ- आँखें मूँद कर
उस शोर की तरफ
घुली हैं जिसमें –
आहें, चीत्कार और हँसी
खड़ा हो जाता है शोर - मुझे घेर कर
मंदिर में स्थापित देव प्रतिमा की तरह
हो जाती है क़ैद अपार शान्ति
मेरे साथ- शोर की सीमित परिधि में ।
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