हवा को बोझिल करती अजनबी साँसों ने
बताया कि कहीं पास हो तुम
अखरने लगा मौन
चुभने लगा सन्नाटा
छलक आए होठों से कुछ अस्फुट शब्द
और टंग गए तेरी आँखों में प्रश्न बनकर।
प्रत्युत्तर में बहने लगा शब्द
शब्दों को संभालता शब्द।
चाहा कि पूछ ही लूँ
आखिर तुम चाहती क्या हो !
हर बार मुंह से प्रश्न की जगह
विस्मृत प्रश्नों का उत्तर निकला।
बदलते रहे प्रश्नों के अर्थ
तेरे चेहरे पर उभरती झुर्रियों के साथ।
टपकते रहे थके होठों से
रीते मुरझाए शब्द............|
याद आता है बहुत वह मौन
जो सहारा था अकेलेपन का
हमारे-तुम्हारे मिलने से पहले।
Opmerkingen