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nirajnabham

खेल

जड़ प्रकृति रोज़ बदलती, करती रूप शृंगार

चेतन रोता आहें भरता, कर-कर घाटे का व्यापार।

मौसम आते, मौसम जाते, एक समय एक बार

चंचल मनवा सबको भोगे, एक समय हर बार ।


सावन में सूखे खेत दिखें, फागुन में पुरवा बहे बयार

मन दर्पण कि मन का दर्पण, हियरा हरदम करे विचार।


मिट्टी से सोंधी महक उठे, छू जाए जब प्रथम फुहार

बादल बैठे जम कर नभ में, डूबे सब कुछ घर-संसार।

जले जोत बुझ जाने को, कर उजियारा दिन दो-चार

माटी में कब तक दीप जले, कोई कर चाहे जतन हजार।


किरण-किरण सा मन बिखरे, तन की कौन करे सँभार

कर खेल खतम सब एक हुए, मिट्टी, पानी, चाक, कुम्हार।

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