सुनाने चला है ज़माना
मुझको मेरे विश्वास की सजाएँ।
साथ कोई नहीं खड़ा
किसी का यकीन भी नहीं
सुनाई देती है
अनियंत्रित शोर के बीच
एक खामोश प्रतिध्वनि
जब चीखता है सवाल-
तो क्या विरोध में हँसूँ
पागलों की तरह अट्टहास करके
या कि लड़ूँ – नख दंत लेकर
निराशा की आक्रामकता से।
प्रकाश में घुला आतंक
अब दिखाने लगा है असर।
उपहास उड़ाता अंधेरा
बढ़ाता है दोस्ती का हाथ
घने धुएँ में दिखाई देती है
चुपचाप खड़ी द्विविधा;
हाथ हिला उसे दे विदाई
और जल मेरे मन जल
विश्वासों की मद्धिम आंच में जल
अंधेरे की ठंडी आग में
जिंदगी सी गर्माहट कहाँ!
इसलिए-
जल मेरे मन जल।
Comments