आत्मपरिचय
अधूरी प्यास, अधूरी छ्पास..........! जानता है यह भूत, यह आत्मा जानती है। ज़बान पर अंटके शब्द और गले में अंटकी उबकाई- चैन से न उठने देती है, न चैन से बैठने देती है। हजारों वर्षों का भटकाव फिर भी दिन रात की बेचैनी । यही बेचैनी तब भी थी जब पंच भूतों से रचित एक शरीर ने इस आत्मा को घेर रखा था और अब भी है मेरी समस्त वायवीयता में ।
ऐसा क्या है- जो बार-बार उकसाता है अनगढ़ भावों को अनगढ़ शब्दों में ढाला जाए? क्या आत्माओं की भी पत्नियाँ होती हैं! नहीं प्रभु नहीं। आत्माएँ तो उभयलिंगी होती हैं। तभी तो यहाँ भाव क्या अभाव भी नहीं है। है तो बस एक खंड-खंड आत्म। विखंडन इस कदर विकट कि वह क्षैतिज भी है और लम्बवत भी। एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा । इस आत्मा पर कलुष के कितने रंग चढ़े लेकिन मैंने कभी भी उस पर शिक्षा, समझदारी , ज्ञान आदि का साया भी पड़ने नहीं दिया। अतः सभी सुधि जनों से क्षमा याचना करते हुए निवेदन करना चाहता हूँ कि इस ब्लॉग में किसी किस्म की स्तरीय रचना की अपेक्षा न करें। यह एक विगत अस्तित्व का असंगत प्रलाप है, एक मुक्तिकांक्षी प्रेत का न सुने जाने योग्य चीत्कार है।
न भाषा न शिल्प, न व्याकरण न छंद ! आखिर कोई भूत ये सब लाएगा भी कहाँ से! उसका पीछा तो स्मृतियाँ ही नहीं छोड़ती कभी। और हाँ, भूतों के यहाँ समय का व्यवधान नहीं होता। भूतों की दुनियाँ में भूत, भविष्य और वर्तमान सभी एक साथ उपस्थित होते हैं। कहने का सीधा मतलब यह कि इस ब्लॉग में पायी जाने वाली सामाग्री किसी भी रूप में हो सकती है- निर्बंध ........। लेकिन एक बात जो इस भूत के दिल में हमेशा रहती है वह ये है कि- किसी भी अच्छी कविता के लिए उसके कम से कम तीन स्तरीय निहितार्थ होने चाहिए- व्यक्तिगत स्तर पर , सामाजिक या समष्टि स्तर पर और आध्यात्मिक स्तर पर ।
जाहिर सी बात है कि इस भूत से यह संभव नहीं है। उसे तो इस ब्लॉग के माध्यम से बडबड़ाना है, अनर्गल प्रलाप करना है। अगर भूतों की दुनियाँ में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई पाबंदी नहीं लगती और यह भूत तकनीकि से बोर नहीं होता है तो किसी न किसी बहाने मिलते रहेंगे......